وحيدا ً..
أراقب ُ طائر النورس
يعبرُ أفق َ المسافات ِ
كما أنا.
تطالعني الصباحات
بورد عينيك ِ..
تهمسين ..
هل ما زلت َ تُحبني..؟
وأي القصائد ِ لي..؟
على ارتباك الثغر
ارتشفت رحيق َ حُبك ِ
وحيدا ً..
على عجل ٍ
رسمت ُ دوائر
من ضوء القمر
ناداني طيفُك ِ
أنا هنا..
أميرة الروح
مليكة عرش الحُب ِ
خُذيني
كورد الصباح
كنبيذ مُعتّق
على ضفاف الجرح.
لملمي ضفائر شَعرك ِ
أصابعي
والريح
والموج
لمن أقول من بعدك ِ
حبيبتي.
———————
29/7/2018/محمد عبدالله.